वेदांत दर्शन में ब्रह्मता और आत्मा
भारतीय दर्शन में वेदांत को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है, और इसका मूल उद्देश्य है — ब्रह्म और आत्मा की एकता का प्रतिपादन। वेदांत का मूल आधार यह है कि यह सम्पूर्ण जगत, आत्मा, और ब्रह्म में कोई द्वैत नहीं है, बल्कि सब एक ही परब्रह्म का प्रकट रूप है। अतः वेदांत के अनुसार, आत्मा का साक्षात्कार ही ब्रह्म का साक्षात्कार है।
🔶 वेदांत दर्शन: एक संक्षिप्त परिचय
‘वेद + अन्त’ = वेदांत
वेदों के अंतिम भाग अर्थात् उपनिषदों को ही वेदांत कहा जाता है। ये उपनिषद न केवल वेदों का निष्कर्ष हैं, बल्कि अद्वैत ज्ञान का मूल स्त्रोत भी हैं। वेदांत दर्शन की प्रमुख शाखाएँ हैं:
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अद्वैत वेदांत — शंकराचार्य
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विशिष्टाद्वैत वेदांत — रामानुजाचार्य
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द्वैत वेदांत — मध्वाचार्य
यहाँ हम मुख्य रूप से अद्वैत वेदांत की चर्चा करेंगे।
🌕 अद्वैत वेदांत का सिद्धांत
1. ब्रह्म एकमेव अद्वितीय
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ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है, जो नित्य, निर्विकार, निराकार और सर्वव्यापक है।
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यह ब्रह्म सत् (सत्य), चित् (ज्ञान) और आनंद (परमानंद) का स्वरूप है।
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"ब्रह्म सत्यं, जगन्मिथ्या, जीवो ब्रह्मैव नापरः" — यह अद्वैत वेदांत का मूल सूत्र है।
2. जग का मिथ्यात्व
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जगत (संसार) परम सत्य नहीं, बल्कि माया के कारण दिखाई देता है।
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यह असत नहीं, बल्कि अनित्य (अस्थायी) और अनुभवजन्य भ्रम है।
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जैसे सांप में रस्सी का भ्रम, वैसे ही ब्रह्म में जगत का आभास।
3. आत्मा और ब्रह्म की अभिन्नता
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आत्मा (जीव) स्वयं ब्रह्म का अंश नहीं, बल्कि स्वयं ब्रह्म है।
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"तत्त्वमसि" (तू वही है) — यह महावाक्य आत्मा और ब्रह्म की एकता को सिद्ध करता है।
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जब कोई जीव ‘अहं ब्रह्मास्मि’ की अनुभूति करता है, तभी उसे ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति होती है।
🔷 आत्मा की विशेषताएँ — वेदांत की दृष्टि में
गुण | आत्मा |
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स्वरूप | चैतन्य (Consciousness) |
धर्म | शुद्ध, नित्य, निर्विकार |
स्थिति | सर्वत्र व्याप्त, सबके भीतर |
संबंध | शरीर, मन, बुद्धि से परे |
लक्ष्य | ब्रह्मस्वरूप का अनुभव |
बृहदारण्यक उपनिषद् कहता है:
"य आत्मा सर्वान्तरः" — वह आत्मा जो सभी प्राणियों के भीतर विद्यमान है।
🔍 ब्रह्मता की अनुभूति कैसे संभव है?
1. श्रवण
गुरु से उपनिषदों का श्रवण करना — "ब्रह्म क्या है?", "मैं कौन हूँ?", "सत्य क्या है?" का विवेचन।
2. मनन
सुनने के बाद शंका का निवारण कर, बुद्धि द्वारा विचार करना कि आत्मा और ब्रह्म में कोई द्वैत नहीं।
3. निदिध्यासन
ध्यानपूर्वक आत्मा पर ही स्थिर हो जाना — इस अवस्था में व्यक्ति "मैं शरीर नहीं हूँ, मैं ब्रह्म हूँ" को अनुभव करता है।
🌸 आत्मा और ब्रह्म का संबंध — उपनिषदों के अनुसार
महावाक्य | अर्थ |
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अहं ब्रह्मास्मि | मैं ब्रह्म हूँ |
तत्त्वमसि | तू वही है |
सर्वं खल्विदं ब्रह्म | यह सब कुछ ब्रह्म है |
प्रज्ञानं ब्रह्म | ब्रह्म ज्ञानस्वरूप है |
🔆 आत्मसाक्षात्कार = ब्रह्मसाक्षात्कार
आत्मा जब अपने मूल स्वरूप को जान लेती है, तो उसे यह अनुभव होता है कि वह कभी सीमित नहीं थी।
वह न पुरुष है, न स्त्री; न हिंदू है, न मुस्लिम; न जन्म है, न मृत्यु। वह केवल शुद्ध चैतन्य है।
योगवशिष्ठ में कहा गया है:
“स्वात्मानं विदित्वा त्वं ब्रह्मैव भव”
— "अपने आत्मा को जानकर तू स्वयं ब्रह्म बन जा।"
🪔 क्यों आवश्यक है आत्मा-ब्रह्म की एकता को जानना?
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यह ज्ञान भय, मोह और दुःख का नाश करता है।
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व्यक्ति में निर्भयता, आत्मविश्वास और करुणा उत्पन्न होती है।
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मृत्यु का भय समाप्त हो जाता है।
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सर्वत्र एकता का भाव आता है — "मैं ही सब हूँ।"
✨ निष्कर्ष
वेदांत हमें यह सिखाता है कि ब्रह्म कोई दूर की वस्तु नहीं, कोई स्वर्ग का देव नहीं, बल्कि वह आपके भीतर ही विद्यमान चैतन्य है।
आत्मा और ब्रह्म में कोई भेद नहीं है — यह जानकर ही जीव मुक्त होता है। यही ब्रह्मज्ञान है।
जो जान गया कि —
"मैं देह नहीं, आत्मा हूँ"
और फिर जान गया कि —
"आत्मा ही ब्रह्म है",
वही ब्रह्मज्ञानी है, वही जीवन्मुक्त है।