श्रुति‑भेद: केन, मुंडक, तैत्तिरीय उपनिषदों में ब्रह्म की व्याख्या
श्रुति अर्थात् वेद — जिनमें उपनिषद सबसे गूढ़ और रहस्यात्मक ग्रंथ माने जाते हैं। वेदों के ज्ञान-सागर का निचोड़ “उपनिषद” कहलाते हैं, और इन्हीं में ब्रह्म की सबसे सूक्ष्म, रहस्यात्मक एवं तात्त्विक व्याख्या मिलती है। हर उपनिषद ब्रह्म को एक विशिष्ट दृष्टिकोण से प्रस्तुत करता है, और साधक को उस परम सत्य तक पहुँचाने की सीढ़ी बनता है।
इस खंड में हम तीन प्रमुख उपनिषदों — केन, मुंडक और तैत्तिरीय — के माध्यम से ब्रह्म की व्याख्या को समझेंगे।
🌟 1. केन उपनिषद में ब्रह्म
केन उपनिषद सामवेद का भाग है और यह आत्मा तथा ब्रह्म के अंतर को मिटाकर ब्रह्म की अनुभूति की ओर ले जाता है। इसका मुख्य प्रश्न ही यह है:
"केन ईषितं पतति प्रेसितं मनः?"
(मन किसके आदेश से कार्य करता है?)
🔎 मुख्य शिक्षा:
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ब्रह्म इंद्रियों और मन के परे है।
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यह वाणी से अवर्णनीय और बुद्धि से अगम्य है।
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इसे न तो आँख देख सकती है, न कान सुन सकते हैं, न मन समझ सकता है।
"यन्मनसा न मनुते येनाहुर् मनो मतम्"
— वह ब्रह्म है जिसे मन नहीं जान सकता, किंतु जिससे मन को जानने की शक्ति मिलती है।
✨ निष्कर्ष:
ब्रह्म ज्ञेय नहीं है, परन्तु वही ज्ञान का मूल स्रोत है। वह सभी ज्ञात वस्तुओं से परे है — जब व्यक्ति जान लेता है कि “मैं नहीं जानता”, तभी ब्रह्म के निकट पहुँचता है।
🔥 2. मुंडक उपनिषद में ब्रह्म
मुंडक उपनिषद ऋग्वेद का अंग है और यह ज्ञान (ब्रह्मविद्या) तथा अविद्या (अज्ञान) के अंतर को गहराई से स्पष्ट करता है। यह उपनिषद विशेष रूप से साधक के लिए ब्रह्मप्राप्ति का मार्गदर्शन करता है।
🔎 मुख्य शिक्षा:
द्वैविध्य ज्ञान:
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अपर विद्या — वेद, मंत्र, यज्ञ आदि कर्मकांड
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परा विद्या — वह है जिससे ब्रह्म की साक्षात अनुभूति होती है
"तस्य वै तपसा ब्रह्मविज्ञानं विदित्वा परं मोक्षं आप्नोति"
🔷 ब्रह्म का स्वरूप:
"स यो ह वै तत् परं ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति"
(जो ब्रह्म को जानता है, वह स्वयं ब्रह्म बन जाता है।)
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ब्रह्म है:
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ज्योतिर्मय — आत्मप्रकाश स्वरूप
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अचल, अव्यय — अविनाशी
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विराट — सम्पूर्ण सृष्टि उसी में स्थित है
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अद्वितीय — दूसरा कोई नहीं
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🌿 उदाहरण:
"यथा नद्यानं संगमनेन समुद्रं गच्छन्ति..."
(जैसे सभी नदियाँ समुद्र में जाकर एक हो जाती हैं, वैसे ही आत्माएं ब्रह्म में लीन हो जाती हैं।)
✨ निष्कर्ष:
मुंडक उपनिषद ब्रह्म को अंतिम लक्ष्य घोषित करता है और यह दर्शाता है कि केवल गुरु की कृपा, तपस्या और ध्यान से ही उसकी प्राप्ति संभव है।
🌕 3. तैत्तिरीय उपनिषद में ब्रह्म
तैत्तिरीय उपनिषद यजुर्वेद का अंग है और यह ब्रह्म को सत्-चित्-आनंद के रूप में वर्णित करता है। यह उपनिषद विशेष रूप से आनंद की अवस्था को ब्रह्म की अंतिम पहचान मानता है।
🔎 प्रमुख शिक्षा:
ब्रह्म की परिभाषा:
"सत्यं ज्ञानं अनन्तं ब्रह्म"
(ब्रह्म सत्य है, ज्ञानस्वरूप है, अनंत है।)
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सत्यं — अस्तित्व, जो न कभी मिटता है
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ज्ञानं — पूर्ण चेतना, ज्ञान का मूल स्रोत
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अनन्तं — सीमाओं से परे
🪔 पंचकोश सिद्धांत:
ब्रह्म को जानने के लिए आत्मा को पाँच आवरणों (कोशों) से ऊपर उठना होता है:
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अन्नमय कोश — शरीर
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प्राणमय कोश — ऊर्जा
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मनोमय कोश — मन
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विज्ञानमय कोश — बुद्धि
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आनंदमय कोश — परमानंद की अवस्था
ब्रह्म वहीं उपलब्ध होता है जहाँ आत्मा आनंदमय अवस्था को पार कर निःसीम शांति में स्थिर हो जाए।
✨ निष्कर्ष:
तैत्तिरीय उपनिषद ब्रह्म को आनंद की पराकाष्ठा बताता है और कहता है कि जो ब्रह्म को जानता है, वही सच्चा आनंद प्राप्त करता है — यह आनंद विषयों से नहीं, आत्मा से आता है।
🔰 तीनों उपनिषदों की तुलना:
उपनिषद | ब्रह्म की व्याख्या | विशेषता |
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केन | इंद्रियों से परे, अनुभवगम्य नहीं | बोध की गहराई |
मुंडक | ज्ञान और तप से जानने योग्य | साधना मार्ग |
तैत्तिरीय | सत्य, ज्ञान, आनंदस्वरूप | आत्मिक विश्लेषण |
🌈 समेकित निष्कर्ष
केन, मुंडक और तैत्तिरीय उपनिषद ब्रह्म को अलग-अलग कोणों से दिखाते हैं — कहीं वह अलौकिक, इंद्रियातीत चेतना है, कहीं प्रकाशमय अद्वैत सत्ता, और कहीं आनंदस्वरूप सत्य।
तीनों उपनिषद इस बात पर एकमत हैं कि —
ब्रह्म को न कर्मों से, न वाणी से, न तर्क से जाना जा सकता है; केवल आत्मसाक्षात्कार और साधना से ही उसकी प्राप्ति संभव है।