अवधूत गीता, गीता‑प्रवचन एवं कर्मयोग में ब्रह्मज्ञान की अभिव्यक्ति

 अवधूत गीता, गीता‑प्रवचन एवं कर्मयोग में ब्रह्मज्ञान की अभिव्यक्ति

1. अवधूत गीता में ब्रह्मज्ञान

‘अवधूत गीता’ एक अद्वैत वेदांत की महानतम रचनाओं में से एक मानी जाती है। इसे ऋषि दत्तात्रेय द्वारा रचित माना गया है। इसमें ब्रह्मज्ञान को अत्यंत सरल, लेकिन गूढ़ भाषा में प्रस्तुत किया गया है। अवधूत गीता यह दर्शाती है कि आत्मा (जीव) और ब्रह्म (परमात्मा) में कोई भेद नहीं है – यह अद्वैत की चरम घोषणा है।

  • इसमें कहा गया है:

    "न मे बन्धो न मोक्षो मे भ्रान्ति मेव किलात्मनि।"
    (न मुझे बंधन है, न मोक्ष; यह सब केवल भ्रांति है आत्मा में)

  • अवधूत गीता के अनुसार ब्रह्मज्ञानी वह है जो:

    • द्वैत से परे है,

    • नाम, रूप, धर्म, कर्म से रहित है,

    • जो साक्षी भाव में स्थित है और स्वयं को ‘शुद्ध चेतन’ रूप में अनुभव करता है।

  • अवधूत गीता में बार-बार कहा गया है कि ज्ञान के लिए कोई कर्मकांड आवश्यक नहीं, केवल स्वानुभूति, वैराग्य, और निर्विचार चित्त की आवश्यकता है।

2. श्रीमद्भगवद्गीता में ब्रह्मज्ञान

श्रीमद्भगवद्गीता में ब्रह्मज्ञान को स्पष्ट रूप से अध्याय 2 (सांख्य योग), अध्याय 4 (ज्ञान योग), अध्याय 5 (संन्यास योग), अध्याय 13 (क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ) और अध्याय 15 (पुरुषोत्तम योग) में समझाया गया है।

  • अध्याय 2.11–30: अर्जुन को आत्मा की अमरता और शरीर से भिन्नता का ज्ञान दिया जाता है — यही ब्रह्मज्ञान की नींव है।

  • अध्याय 4.33:

    "श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परन्तप।"
    (भौतिक यज्ञों से ज्ञानयज्ञ श्रेष्ठ है)

  • अध्याय 5.18 में कहा गया है कि ब्रह्मज्ञानी व्यक्ति पंडित और गौ, कुत्ते, चांडाल में समान ब्रह्म तत्व को देखता है।

  • ब्रह्मभूत अवस्था (अध्याय 18.54):

    "ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति"
    (जो ब्रह्म को जान चुका है, वह शोक और आकांक्षा से परे होता है)

  • गीता में ब्रह्मज्ञान अनासक्ति, साक्षी भाव, और समत्व के रूप में प्रकट होता है।

3. कर्मयोग में ब्रह्मज्ञान

कर्मयोग में ब्रह्मज्ञान का अर्थ है — कर्म करते हुए भी ब्रह्मभाव में स्थित रहना।

  • गीता के अनुसार कर्मयोगी वह है जो:

    • फल की अपेक्षा से रहित होकर कर्म करता है,

    • कर्म को ईश्वरार्पण करता है,

    • अहंकार रहित होकर कर्म करता है।

  • गीता (अध्याय 3) में कहा गया है:

    "कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।"

  • जब व्यक्ति "कर्ता" भाव का त्याग करता है और कर्म को केवल प्रकृति का कार्य मानता है, तब वह ब्रह्मज्ञानी बनता है।

  • कर्मयोग ज्ञान और भक्ति दोनों का संयोजन है। यह ब्रह्म को कर्म के माध्यम से जानने की पद्धति है।

निष्कर्ष:

  • अवधूत गीता हमें शुद्ध अद्वैत का स्वरूप देती है — जहाँ केवल ब्रह्म ही सत्य है।

  • भगवद्गीता ब्रह्मज्ञान को व्यवहारिक जीवन में उतारने की प्रेरणा देती है।

  • कर्मयोग हमें यह सिखाता है कि सांसारिक कर्म करते हुए भी हम ब्रह्म को अनुभव कर सकते हैं।

ब्रह्मज्ञान की यह अभिव्यक्तियाँ बताती हैं कि चाहे विचार (ज्ञान), आचरण (कर्म), या अनुभव (साक्षात्कार) कोई भी मार्ग हो — लक्ष्य केवल ब्रह्म का साक्षात्कार है।

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